Natasha

लाइब्रेरी में जोड़ें

राग दरबारी (उपन्यास) : श्रीलाल शुक्ल

अध्याय 1. जाना रंगनाथ का शिवपालगंज
शहर का किनारा। उसे छोड़ते ही भारतीय देहात का महासागर शुरू हो जाता था।
वहीं एक ट्रक खड़ा था। उसे देखते ही यकीन हो जाता था, इसका जन्म केवल सड़कों के साथ बलात्कार करने के लिए हुआ है। जैसे कि सत्य के होते हैं, इस ट्रक के भी कई पहलू थे। पुलिसवाले उसे एक ओर से देखकर कह सकते थे कि वह सड़क के बीच में खड़ा है, दूसरी ओर से देखकर ड्राइवर कह सकता था कि वह सड़क के किनारे पर है। चालू फैशन के हिसाब से ड्राइवर ने ट्रक का दाहिना दरवाज़ा खोलकर डैने की तरह फैला दिया था। इससे ट्रक की खूबसूरती बढ़ गई थी, साथ ही यह खतरा मिट गया था कि उसके वहाँ होते हुए कोई दूसरी सवारी भी सड़क के ऊपर से निकल सकती है।

सड़क के एक ओर पेट्रोल-स्टेशन था; दूसरी ओर छप्परों, लकड़ी और टीन के सड़े टुकड़े और स्थानीय क्षमता के अनुसार निकलनेवाले कबाड़ की मदद से खड़ी की हुई दुकाने थीं। पहली निगाह में ही मालूम हो जाता था कि दुकानों की गिनती नहीं हो सकती। प्रायः सभी में जनता का एक मनपसन्द पेय मिलता था जिसे वहाँ गर्द, चीकट, चाय की कई बार इस्तेमाल की हुई पत्ती और खौलते पानी आदि के सहारे बनाया जाता था। उनमें मिठाइयाँ भी थीं जो दिन-रात आँधी-पानी और मक्खी-मच्छरों के हमलों का बहादुरी से मुकाबला करती थीं। वे हमारे देसी कारीगरों के हस्त कौशल और उनकी वैज्ञानिक दक्षता का सबूत देती थीं। वे बताती थीं कि हमें एक अच्छा रेजर-ब्लेड बनाने का नुस्खा भले ही न मालूम हो, पर कूड़े को स्वादिष्ट खाद्य पदार्थों में बदल देने की तरकीब सारी दुनिया में अकेले हमीं को आती है।
ट्रक के ड्राइवर और क्लीनर एक दुकान के सामने खड़े चाय पी रहे थे।
रंगनाथ ने दूर से इस ट्रक को देखा और देखते ही उसके पैर तेज़ी से चलने लगे।
आज रेलवे ने उसे धोखा दिया था। स्थानीय पैसेंजर्स ट्रेन को रोज की तरह दो घण्टा लेट समझकर वह घर से चला था, पर वह सिर्फ डेढ़ घण्टा लेट होकर चल दी थी। शिकायती किताब के कथा-साहित्य में अपना योगदान देकर और रेलवे अधिकारियों की निगाह में हास्यास्पद बनकर वह स्टेशन से बाहर निकल आया था। रास्ते में चलते हुए उसने ट्रक देखा और उसकी बाछें-वे जिस्म में जहाँ कहीं भी होतीं हों—खिल गईं।

जब वह ट्रक के पास पहुँचा, क्लीनर और ड्राइवर चाय की आखिरी चुस्कियाँ ले रहे थे। इधर-उधर ताकककर, अपनी खिली हुई बाछों को छिपाते हुए, उसने ड्राइवर से निर्विकार ढंग से पूछा, ‘‘क्यों ड्राइवर साहब, यह ट्रक क्या शिवपालगंज की ओर जाएगा ?’’
ड्राइवर के पीने को चाय थी और देखने की दुकानदारिन थी। उसने लापरवाही से जवाब दिया, ‘‘जायगा।’’
‘‘हमें भी ले चलिएगा अपने साथ ? पन्द्रहवें मील पर उतर पड़ेंगे। शिवपालगंज तक जाना है।’’
ड्राइवर ने दुकानदारिन की सारी संभावनाएँ एक साथ देख डालीं और अपनी निगाह रंगनाथ की ओर घुमायी। अहा ! क्या हुलिया था !
नवकंजलोचन कंजमुख करकंज पदकंजारुणम् ! पैर खद्दर के पैजामे में, सिर खद्दर की टोपी में, बदन खद्दर के कुर्ते में। कन्धें से लटकता हुआ भूदानी झोला। हाथ में चमड़े की अटैची। ड्राइवर ने उसे देखा और देखता ही रह गया। फिर कुछ सोचकर बोला, ‘‘बैठ जाइए शिरिमानजी, अभी चलते हैं।’’

घरघराकर ट्रक चला। शहर की टेढ़ी-मेढ़ी लपेट से फुरसत पाकर कुछ दूर आगे साफ़ और वीरान सड़क आ गई। यहाँ ड्राइवर ने पहली बार टॉप गियर का प्रयोग किया पर वह फिसल-फिसल कर न्यूटल में गिरने लगा। हर सौ गज़ के बाद गियर फिसल जाता और एक्सिलेटर दबे होने से ट्रक की घरघराहट बढ़ जाती, रफ्तार धीमी हो जाती रंगनाथ ने कहा, ‘‘ड्राइवर साहब, तुम्हारा गियर तो बिलकुल अपने देश की हुकूमत जैसा है।’’

ड्राइवर ने मुस्करा कर वह प्रशंसा-पत्र ग्रहण किया। रंगनाथ ने अपनी बात साफ़ करने की कोशिश की। कहा, ‘‘उसे चाहे जितनी बार टॉप गियर में डालो, दो गज़ चलते ही फिसल जाती है और लौटकर अपने खाँचे में आ जाती है।’’


   0
0 Comments